स्वस्थ रहने के लिए वात, पित्त, कफ का संतुलन आवश्यक है
आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ रहने के लिए वात, पित्त, कफ तीनों दोषों का संतुलित होना आवश्यक है। ये तीनों दोष मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते हैं। कफ उपचय का, वात अपचय का और पित्त चयापचयी का संचालन करता है।
वात दोष:- वात को मनुष्य के शरीर में गति का सिद्धान्त कहा है। यह शरीर में सभी प्रकार की जैविक गति एवं क्रियाओं का संचालन करता है। यह चयापचय सम्बंधी सूक्ष्म से सूक्ष्म परिवर्तनों को करने वाला हैं। श्वसन क्रिया, कोशिकाओं, पेशियों, ऊत्तकों में होने वाली प्रक्रियाएं, शरीर में रक्त और तन्त्रिकीय संवेगों, उत्सर्जन आदि को कंट्रोल करता है। यह भावनाओं, अनुभूतियों जैसे डर, तनाव, चिन्ता, उदासी, शरीर में दर्द, नसों में ऐंठन, कंपन व ताजगी आदि को कंट्रोल करता है। वातरोग वृद्धावस्था में बढ़ जाते हैं। वात रोग अस्सी प्रकार के होते हैं।
पित्त दोष:- इसमें अग्नि तत्व प्रधान होता है। पित्त को अग्नि कहा जाता है। यह चयापचय प्रक्रियाओं का संचालन करता है। इससे भोजन का पाचन और शरीर का चयापचय प्रक्रियाओं में आवश्यक रसायन जैसे हारमोन्स, एन्जाइमस आदि आते है। पित्त दोष जो भोजन खाया जाता है, उसको शरीर के स्वास्थ्य के लिए आन्तरिक तत्वों में बदलता है। यह केवल भोजन को नहीं पचाता, बल्कि कोशिकीय स्तर की प्रक्रियाओं का भी संचालन करता है। जैसे पित्त आहार का पाचन, अवशोषण, पोषण, शारीरिक तापमान, चयापचय, त्वचा का रंग आदि का संचालन करता है वैसे ही मानसिक स्तर पर बुद्धि की तीव्रता, ईर्ष्या, क्रोध और घृणा आदि को भी कंट्रोल करता है। पित्त रोग अक्सर युवास्था में ज्यादा होते हैं। पित्त रोग चालीस प्रकार के होते हैं।
कफ दोष:- यह पृथ्वी और जल इन दो महाभूतों से उत्पन्न होता है। शरीर का आकार और संरचना कफ दोष पर आधारित है। यह रोग प्रतिरोधक शक्ति देने वाला तथा उतकीय व कोशिकीय प्रक्रियाओं को स्वस्थ्य रखने वाला है। यह शरीर की चिकनाहटपन, जोड़ों की मजबूती, शारीरिक शक्ति और स्थिरता का बनाए रखता है। कफ रोग किशोरावस्था में अधिक ज्यादा होते है। कफ रोग बीस प्रकार के होते हैं।